दीवारों में दर होता तो अच्छा था
अपना कोई घर होता तो अच्छा था
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जब अपनों से दूर पराए देस में रहना पड़ता है
किसी ने मुझ से कह दिया था ज़िंदगी पे ग़ौर कर
कर भी लूँ अगर ख़्वाब की ताबीर कोई और
ऐ मेरे मुसव्विर नहीं ये मैं तो नहीं हूँ
जिस को मेरी हालत का एहसास नहीं
मैं ख़ाक में मिले हुए गुलाब देखता रहा
इस तरह सताया है परेशान किया है
रंग आ जाते मुट्ठी में जुगनू बन कर
मुश्किल था बहुत मेरे लिए तर्क-ए-तअल्लुक़
ग़म का मौसम बीत गया सो रोना क्या