बाग़ क्या क्या शजर दिखाते हैं

बाग़ क्या क्या शजर दिखाते हैं

हम भी अपने समर दिखाते हैं

आ तुझे बे-ख़बर दिखाते हैं

हालत-ए-नामा-बर दिखाते हैं

कुछ मज़ाहिर हैं जो नगर में हमें

दूसरा ही नगर दिखाते हैं

रूह-ए-मुतलक़ में इश्क़ जज़्ब हुआ

अर्श का काम कर दिखाते हैं

ख़ुद तो पहुँचे हुए हैं मंज़िल पर

पाँव को दर-ब-दर दिखाते हैं

हम को मतलूब ख़ुद से जाना है

वाँ नहीं हैं जिधर दिखाते हैं

कितना फैलाव रक़्स-ए-आब में है

अपने सर से उतर दिखाते हैं

आ दिखाते हैं तुझ को अपना आप

और दिल खोल कर दिखाते हैं

आ कराते हैं सैर-ए-दिल तुझ को

आ तुझे बहर-ओ-बर दिखाते हैं

जब दिखानी हो रौनक़-ए-रफ़्तार

वो यहाँ से गुज़र दिखाते हैं

उठते पानी सी लहर लेने से वो

सर से पा तक कमर दिखाते हैं

कौन सूरज हमारी आँखों को

ख़्वाब-ए-शाम-ओ-सहर दिखाते हैं

राह-ए-दुश्वार जब नहीं कटती

वो कोई बात कर दिखाते हैं

मत उठा अब कोई नई दीवार

हम तुझे अपना सर दिखाते हैं

चाँदनी क्या कहीं पे बिखरेगी

तेरे दर पर बिखर दिखाते हैं

देख इक तंगी-ए-क़यामत-ख़ेज़

हम तुझे अपना घर दिखाते हैं

बाम-ए-अफ़्लाक से उतार हमें

हाथ पर दीप धर दिखाते हैं

अस्ल रुख़ का नहीं है उश्र-ए-अशीर

जो हमें चारा-गर दिखाते हैं

कुछ तो मज़मूँ बने-बनाए हैं

और कुछ बाँध कर दिखाते हैं

ग़म्ज़ा-हा-ए-पस-ए-नज़्ज़ारा 'नवेद'

हम को राह-ए-सफ़र दिखाते हैं

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