रख लिए रौज़न-ए-ज़िंदाँ पे परिंदे सारे
जो न वाँ रखने थे दीवान में रख छोड़े हैं
Jaun Eliya
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Habib Jalib
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Anwar Masood
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जंग से जंगल बना जंगल से मैं निकला नहीं
हम ने कुछ पँख जो दालान में रख छोड़े हैं
मकान-ए-ख़्वाब में जंगल की बास रहने लगी
ऐसे कुछ दिन भी थे जो हम से गुज़ारे न गए
न रोना रह गया बाक़ी न हँसना रह गया बाक़ी
दिखाई दे कि शुआ-ए-बसीर खींचता हूँ
पानी शजर पे फूल बना देखता रहा
एक उजली उमंग उड़ाई थी
अपने ही तले आई ज़मीनों से निकल कर
इक धन को एक धन से अलग कर लूँ और गाऊँ
सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है