किस तरह जवानी में चलूँ राह पे नासेह
ये उम्र ही ऐसी है सुझाई नहीं देता
Gulzar
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क्या ख़बर थी राज़-ए-दिल अपना अयाँ हो जाएगा
जब्र को इख़्तियार कौन करे
इस लिए कहते थे देखा मुँह लगाने का मज़ा
बहार आई है फिर चमन में नसीम इठला के चल रही है
मैं ख़ुदी में मुब्तिला ख़ुद को मिटाने के लिए
रोने से जो भड़ास थी दिल की निकल गई
जिस ने तुझे ख़ल्वत में भी तन्हा नहीं देखा
हमीं हैं मौजिब-ए-बाब-ए-फ़साहत हज़रत-ए-'शाइर'
दिल सर्द हो गया है तबीअत बुझी हुई
शाइर-ए-रंगीं फ़साना हो गया
गिरी गिर कर उठी पलटी तो जो कुछ था उठा लाई