इस लिए कहते थे देखा मुँह लगाने का मज़ा
आईना अब आप का मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गया
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उन्स अपने में कहीं पाया न बेगाने में था
न निकला मुँह से कुछ निकली न कुछ भी क़ल्ब-ए-मुज़्तर की
जब्र को इख़्तियार कौन करे
अबरू न सँवारा करो कट जाएगी उँगली
हमीं हैं मौजिब-ए-बाब-ए-फ़साहत हज़रत-ए-'शाइर'
लाख लाख एहसान जिस ने दर्द पैदा कर दिया
जान देते ही बनी इश्क़ के दीवाने से
उर्यां ही रहे लाश ग़रीब-उल-वतनी में
इक बात कहें तुम से ख़फ़ा तो नहीं होगे
मिलना न मिलना ये तो मुक़द्दर की बात है
रुख़्सार के परतव से बिजली की नई धज है
तुम कहाँ वस्ल कहाँ वस्ल की उम्मीद कहाँ