इक बात कहें तुम से ख़फ़ा तो नहीं होगे
पहलू में हमारे दिल-ए-मुज़्तर नहीं मिलता
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बुतों के वास्ते तो दीन-ओ-ईमाँ बेच डाले हैं
गिरी गिर कर उठी पलटी तो जो कुछ था उठा लाई
तुम कहाँ वस्ल कहाँ वस्ल की उम्मीद कहाँ
मुझ को आता है तयम्मुम न वज़ू आता है
हमीं हैं मौजिब-ए-बाब-ए-फ़साहत हज़रत-ए-'शाइर'
अबरू न सँवारा करो कट जाएगी उँगली
बहार आई है फिर चमन में नसीम इठला के चल रही है
लाख लाख एहसान जिस ने दर्द पैदा कर दिया
जान देते ही बनी इश्क़ के दीवाने से
पामाल कर के पूछते हैं किस अदा से वो
मस्कन वहीं कहीं है वहीं आशियाँ कहीं
न निकला मुँह से कुछ निकली न कुछ भी क़ल्ब-ए-मुज़्तर की