चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले
मुझ से अच्छे तो शब-ए-ग़म के मुक़द्दर निकले
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हाथ से नापता हूँ दर्द की गहराई को
अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
चमक-दमक पे न जाओ खरी नहीं कोई शय
किस रक़्स-ए-जान-आे-तन में मिरा दिल नहीं रहा
लुभाता है अगरचे हुस्न-ए-दरिया डर रहा हूँ मैं
ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ
धड़कती रहती है दिल में तलब कोई न कोई
अरे क्यूँ डर रहे हो जंगल से
अब मंज़िल-ए-सदा से सफ़र कर रहे हैं हम
था मुझ से हम-कलाम मगर देखने में था
जैसे पौ फट रही हो जंगल में