यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया
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होती है शाम आँख से आँसू रवाँ हुए
जहाँ डाले थे उस ने धूप में कपड़े सुखाने को
यही दुनिया थी मगर आज भी यूँ लगता है
नींदों में फिर रहा हूँ उसे ढूँढता हुआ
रौशनी रहती थी दिल में ज़ख़्म जब तक ताज़ा था
मुझे मालूम है अहल-ए-वफ़ा पर क्या गुज़रती है
हम अपनी धूप में बैठे हैं 'मुश्ताक़'
तन्हाई में करनी तो है इक बात किसी से
किस रक़्स-ए-जान-आे-तन में मिरा दिल नहीं रहा
ख़ून-ए-दिल से किश्त-ए-ग़म को सींचता रहता हूँ मैं
गुज़रे हज़ार बादल पलकों के साए साए
ये वो मौसम है जिस में कोई पत्ता भी नहीं हिलता