तन्हाई में करनी तो है इक बात किसी से
लेकिन वो किसी वक़्त अकेला नहीं होता
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ये हम ग़ज़ल में जो हर्फ़-ओ-बयाँ बनाते हैं
जैसे पौ फट रही हो जंगल में
पानी में अक्स और किसी आसमाँ का है
गुम रहा हूँ तिरे ख़यालों में
दुख की चीख़ें प्यार की सरगोशियाँ रह जाएँगी
शाम होती है तो याद आती है सारी बातें
अहल-ए-हवस तो ख़ैर हवस में हुए ज़लील
रौशनी रहती थी दिल में ज़ख़्म जब तक ताज़ा था
बहता आँसू एक झलक में कितने रूप दिखाएगा
मुसलसल याद आती है चमक चश्म-ए-ग़ज़ालाँ की
दिल फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन
शबनम को रेत फूल को काँटा बना दिया