यही दुनिया थी मगर आज भी यूँ लगता है
जैसे काटी हों तिरे हिज्र की रातें कहीं और
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कैसे आ सकती है ऐसी दिल-नशीं दुनिया को मौत
भूले-बिसरे मौसमों के दरमियाँ रहता हूँ मैं
भागने का कोई रस्ता नहीं रहने देते
भूल गई वो शक्ल भी आख़िर
छत से कुछ क़हक़हे अभी तक
तू अगर पास नहीं है कहीं मौजूद तो है
दुनिया में सुराग़-ए-रह-ए-दुनिया नहीं मिलता
अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए
लुभाता है अगरचे हुस्न-ए-दरिया डर रहा हूँ मैं
बरस कर खुल गया अब्र-ए-ख़िज़ाँ आहिस्ता आहिस्ता
बहता आँसू एक झलक में कितने रूप दिखाएगा
थम गया दर्द उजाला हुआ तन्हाई में