हम अपनी धूप में बैठे हैं 'मुश्ताक़'
हमारे साथ है साया हमारा
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मिल ही आते हैं उसे ऐसा भी क्या हो जाएगा
किसी जानिब नहीं खुलते दरीचे
किस शय पे यहाँ वक़्त का साया नहीं होता
रुख़्सत-ए-शब का समाँ पहले कभी देखा न था
ज़ुल्फ़ देखी वो धुआँ-धार वो चेहरा देखा
दुख की चीख़ें प्यार की सरगोशियाँ रह जाएँगी
ख़ून-ए-दिल से किश्त-ए-ग़म को सींचता रहता हूँ मैं
दिल फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन
गुम रहा हूँ तिरे ख़यालों में
इक ज़माना था कि सब एक जगह रहते थे
एक लम्हे में बिखर जाता है ताना-बाना
हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं