किसी जानिब नहीं खुलते दरीचे
कहीं जाता नहीं रस्ता हमारा
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दुख के सफ़र पे दिल को रवाना तो कर दिया
मुँह अंधेरे जगा के छोड़ गई
नाला-ए-ख़ूनीं से रौशन दर्द की रातें करो
नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है
ख़ैर औरों ने भी चाहा तो है तुझ सा होना
चाँद इस घर के दरीचों के बराबर आया
अब शुग़्ल है यही दिल-ए-ईज़ा-पसंद का
उम्र भर दुख सहते सहते आख़िर इतना तो हुआ
इक रात चाँदनी मिरे बिस्तर पे आई थी
धड़कती रहती है दिल में तलब कोई न कोई
चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले
यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में