जहान-ए-इश्क़ से हम सरसरी नहीं गुज़रे
ये वो जहाँ है जहाँ सरसरी नहीं कोई शय
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मंज़र-ए-सुबह दिखाने उसे लाया न गया
बहता आँसू एक झलक में कितने रूप दिखाएगा
रात फिर रंग पे थी उस के बदन की ख़ुशबू
थम गया दर्द उजाला हुआ तन्हाई में
हम अपनी धूप में बैठे हैं 'मुश्ताक़'
दिल भर आया काग़ज़-ए-ख़ाली की सूरत देख कर
छट गया अब्र शफ़क़ खुल गई तारे निकले
मलाल-ए-दिल से इलाज-ए-ग़म-ए-ज़माना किया
जैसे पौ फट रही हो जंगल में
पानी में अक्स और किसी आसमाँ का है
हम उन को सोच में गुम देख कर वापस चले आए
भूल गई वो शक्ल भी आख़िर