जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तिरे
ऐ मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता है
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हर लम्हा ज़ुल्मतों की ख़ुदाई का वक़्त है
अब मंज़िल-ए-सदा से सफ़र कर रहे हैं हम
इक रात चाँदनी मिरे बिस्तर पे आई थी
किस शय पे यहाँ वक़्त का साया नहीं होता
बला की चमक उस के चेहरे पे थी
जहाँ डाले थे उस ने धूप में कपड़े सुखाने को
तू ने ही तो चाहा था कि मिलता रहूँ तुझ से
खड़े हैं दिल में जो बर्ग-ओ-समर लगाए हुए
उजला तिरा बर्तन है और साफ़ तिरा पानी
अब शुग़्ल है यही दिल-ए-ईज़ा-पसंद का
इस माअ'रके में इश्क़ बेचारा करेगा क्या
कई चाँद थे सर-ए-आसमाँ कि चमक चमक के पलट गए