इस मअ'रके में इश्क़ बेचारा करेगा क्या
ख़ुद हुस्न को हैं जान के लाले पड़े हुए
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चाँद भी निकला सितारे भी बराबर निकले
हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं
अब न बहल सकेगा दिल अब न दिए जलाइए
दुख की चीख़ें प्यार की सरगोशियाँ रह जाएँगी
संग उठाना तो बड़ी बात है अब शहर के लोग
अजब नहीं कभी नग़्मा बने फ़ुग़ाँ मेरी
उम्र भर दुख सहते सहते आख़िर इतना तो हुआ
इश्क़ में कौन बता सकता है
खोया है कुछ ज़रूर जो उस की तलाश में
दस्त-ए-सुमूम दस्त-ए-सबा क्यूँ नहीं हुआ
हम उन को सोच में गुम देख कर वापस चले आए
था मुझ से हम-कलाम मगर देखने में था