मुंतज़िर हूँ मैं कफ़न बाँध के सर से 'आजिज़'
सामने से कोई ख़ंजर नहीं आया अब तक
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हंगामा क्यूँ बपा है ज़रा बाम पर से देख
हो बिजलियों का मुझ से जहाँ पर मुक़ाबला
मौजूद हैं वो भी बालीं पर अब मौत का टलना मुश्किल है
होता है महसूस ये 'आजिज़' शायद उस ने दस्तक दी
हसरतें आ आ के जम्अ हो रही हैं दिल के पास
क्यूँ कहूँ कोई क़द-आवर नहीं आया अब तक
मय-ख़ाने पर काले बादल जब घिर घिर कर आते हैं
एक हम हैं हम ने कश्ती डाल दी गिर्दाब में
जब कभी मद्द-ए-मुक़ाबिल वो रुख़-ए-ज़ेबा हुआ
आग़ाज़-ए-मोहब्बत में 'आजिज़' रुकती न थी मौज-ए-अश्क-ए-रवाँ
दर्द-ए-मुसलसल से आहों में पैदा वो तासीर हुई