मिरा ख़ून-ए-जिगर पुर-नूर बन जाए तो अच्छा हो
तुम्हारी माँग का सिन्दूर बन जाने तो अच्छा हो
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एक रात एक सुब्ह
ज़रा पर्दा हटा दो सामने से बिजलियाँ चमकें
नफ़रत से मोहब्बत को सहारे भी मिले हैं
ताज़ा मंज़र
मैं बड़ी मुश्किल में हूँ
राज़-ए-ग़म-ए-उल्फ़त को ये दुनिया न समझ ले
तीन मुख़्तसर नज़्में
न आसमाँ की कहानी न वाँ का क़िस्सा लिख
वो तो था आदमी की तरह 'ज़हीर'
कसाफ़त
दिल ये कहता है कि इक आलम-ए-मुज़्तर देखूँ