ज़रा पर्दा हटा दो सामने से बिजलियाँ चमकें
मिरा दिल जल्वा-गाह-ए-तूर बन जाए तो अच्छा हो
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एक पलटता हुआ मंज़र
ताज़ा मंज़र
मिरा ख़ून-ए-जिगर पुर-नूर बन जाए तो अच्छा हो
काला समुंदर
दिल ये कहता है कि इक आलम-ए-मुज़्तर देखूँ
तीन मुख़्तसर नज़्में
वो तो था आदमी की तरह 'ज़हीर'
न आसमाँ की कहानी न वाँ का क़िस्सा लिख
किसे बताएँ कि क्या ग़म रहा है आँखों में
कान सुनते तो हैं लेकिन न समझने के लिए
मैं बड़ी मुश्किल में हूँ