हिजाब-ए-अब्र रुख़-ए-महताब से छलका
वो अपने चेहरे से पर्दे को जब हटाने लगा
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कहीं सानेहे मिलेंगे कहीं हादिसा मिलेगा
मुझे यक़ीं है मिरा साथ दे नहीं सकता
ज़माना गुज़रा हवा फिर से याद आने लगा
मेरा ख़त लिख के बुलाना उसे अच्छा न लगा
तू मुस्कुराती रहे है ये आरज़ू मेरी
आईना देख कर न तो शीशे को देख कर
तिरी निगाह बनी आइना मिरी ख़ातिर
हैराँ मैं पहली बार हुआ ज़िंदगी में कल