तिरी निगाह बनी आइना मिरी ख़ातिर
मैं ख़ुद को देख के कल रात मुस्कुराने लगा
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हैराँ मैं पहली बार हुआ ज़िंदगी में कल
हिजाब-ए-अब्र रुख़-ए-महताब से छलका
कहीं सानेहे मिलेंगे कहीं हादिसा मिलेगा
तू मुस्कुराती रहे है ये आरज़ू मेरी
ज़माना गुज़रा हवा फिर से याद आने लगा
आईना देख कर न तो शीशे को देख कर
मुझे यक़ीं है मिरा साथ दे नहीं सकता
मेरा ख़त लिख के बुलाना उसे अच्छा न लगा