ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं
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तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था
मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है
गर्द-बाद-ए-शरार हैं हम लोग
मकाँ उजाड़ था और ला-मकाँ की ख़्वाहिश थी
फिर बदन में थकन की गर्द लिए
लहू जिगर का हुआ सर्फ़-ए-रंग-ए-दस्त-ए-हिना
ख़ुश-आमदीद कहता गुलों का जहान था
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं
रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
निज़ाम-ए-बस्त-ओ-कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं
न तो बे-करानी-ए-दिल रही न तो मद्द-ओ-जज़्र-ए-तलब रहा