फिर बदन में थकन की गर्द लिए
फिर लब-ए-जू-ए-बार हैं हम लोग
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रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था
मकाँ उजाड़ था और ला-मकाँ की ख़्वाहिश थी
बदन के लुक़्मा-ए-तर को हराम कर लिया है
ग़ज़लों से तज्सीम हुई तकमील हुई
न तो बे-करानी-ए-दिल रही न तो मद्द-ओ-जज़्र-ए-तलब रहा
मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
तिरे ख़याल के जब शामियाने लगते हैं
एक जहान-ए-ला-यानी ग़र्क़ाब हुआ
मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है
निज़ाम-ए-बस्त-ओ-कुशाद-ए-मानी सँवारते हैं