रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
वो क़िस्सा-गो ख़ुद अपने में इक दास्तान था
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गर्द-बाद-ए-शरार हैं हम लोग
बदन के लुक़्मा-ए-तर को हराम कर लिया है
तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
दश्त-ए-बला-ए-शौक़ में ख़ेमे लगाए हैं
ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
मकाँ उजाड़ था और ला-मकाँ की ख़्वाहिश थी
ताब खो बैठा हर इक जौहर-ए-ख़ाकी मेरा
ख़याल-ए-यार का सिक्का उछालने में गया
मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
सबा बनाते हैं ग़ुंचा-दहन बनाते हैं