तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का
तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं
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ख़बर भी है तुझे इस दफ़्तर-ए-मोहब्बत को
दश्त-ए-बला-ए-शौक़ में ख़ेमे लगाए हैं
मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ ओ सुर्ख़
तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार
ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की
तेरी ख़ुशबू तिरा पैकर है मिरे शेरों में
रौशन अलाव होते ही आया तरंग में
तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर
तेरी इनायतों का अजब रंग ढंग था
एक जहान-ए-ला-यानी ग़र्क़ाब हुआ
बदन के लुक़्मा-ए-तर को हराम कर लिया है