अब नाम नहीं काम का क़ाएल है ज़माना
अब नाम किसी शख़्स का रावन न मिलेगा
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कोई पूछेगा जिस दिन वाक़ई ये ज़िंदगी क्या है
मैं ने लिख्खा है उसे मर्यम ओ सीता की तरह
ज़ुल्फ़ को अब्र का टुकड़ा नहीं लिख्खा मैं ने
शादाब-ओ-शगुफ़्ता कोई गुलशन न मिलेगा
सभी के अपने मसाइल सभी की अपनी अना
मेरा हर शेर हक़ीक़त की है ज़िंदा तस्वीर
मैं हर बे-जान हर्फ़-ओ-लफ़्ज़ को गोया बनाता हूँ
मुसलसल धूप में चलना चराग़ों की तरह जलना
क़याम-गाह न कोई न कोई घर मेरा
चाहो तो मिरी आँखों को आईना बना लो
पराया कौन है और कौन अपना सब भुला देंगे