हमें तो शम्अ के दोनों सिरे जलाने हैं
ग़ज़ल भी कहनी है शब को बसर भी करना है
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मैं अपने आप को भी देखने से क़ासिर हूँ
हवा-ए-हिर्स-ओ-हवस से मफ़र भी करना है
दिल को मालूम है क्या बात बतानी है उसे
मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है
घटाएँ घिरती हैं बिजली कड़क के गिरती है
ज़मीं के पास किसी दर्द का इलाज नहीं
ग़लत नहीं है दिल-ए-सुल्ह-ख़ू जो बोलता है
कुछ सितारे मिरी पलकों पे चमकते हैं अभी
सुख़न के चाक में पिन्हाँ तुम्हारी चाहत है
मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए
इश्क़ मरहून-ए-हिकायात-ओ-गुमाँ भी होगा
मिट्टी को चूम लेने की हसरत ही रह गई