दिल को मालूम है क्या बात बतानी है उसे
उस से क्या बात छुपानी है ज़बाँ जानती है
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इश्क़ मरहून-ए-हिकायात-ओ-गुमाँ भी होगा
ग़लत नहीं है दिल-ए-सुल्ह-ख़ू जो बोलता है
ग़म-ए-जहान ओ ग़म-ए-यार दो किनारे हैं
ज़मीं के पास किसी दर्द का इलाज नहीं
ये दुनिया अकबर ज़ुल्मों की हम मजबूरी की अनारकली
मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है
उन्हें ये ज़ोम कि बे-सूद है सदा-ए-सुख़न
सर-बुलंदी मिरी तंहाई तक आ पहुँची है
जुनूँ के तौर हम इदराक ही से बाँधते हैं
ग़ज़ल में जान पड़ी गुफ़्तुगू में फूल खिले
सुख़न के चाक में पिन्हाँ तुम्हारी चाहत है
लकीर-ए-संग को अन्क़ा-मिसाल हम ने किया