उन्हें ये ज़ोम कि बे-सूद है सदा-ए-सुख़न
हमें ये ज़िद कि इसी हाव-हू में फूल खिले
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शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
मेरे अशआर तमव्वुज पे जो आए हुए हैं
इश्क़ मरहून-ए-हिकायात-ओ-गुमाँ भी होगा
दिल को मालूम है क्या बात बतानी है उसे
हमें तो शम्अ के दोनों सिरे जलाने हैं
है टोंक अर्ज़-ए-पाक वहीं से उठेंगे हम
हवेली छोड़ने का वक़्त आ गया 'अरशद'
जिंस-ए-मख़लूत हैं और अपने ही आज़ार में हैं
कुछ सितारे मिरी पलकों पे चमकते हैं अभी
ग़म-ए-जहान ओ ग़म-ए-यार दो किनारे हैं
घटाएँ घिरती हैं बिजली कड़क के गिरती है
मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है