ग़म-ए-जहान ओ ग़म-ए-यार दो किनारे हैं
उधर जो डूबे वो अक्सर इधर निकल आए
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जिंस-ए-मख़लूत हैं और अपने ही आज़ार में हैं
ख़ामोशी तक तो एक सदा ले गई मुझे
हवेली छोड़ने का वक़्त आ गया 'अरशद'
घटाएँ घिरती हैं बिजली कड़क के गिरती है
सुख़न के चाक में पिन्हाँ तुम्हारी चाहत है
मुझ सा बेताब यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा
मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए
ज़मीं के पास किसी दर्द का इलाज नहीं
जुनूँ के तौर हम इदराक ही से बाँधते हैं
शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
हवा-ए-हिर्स-ओ-हवस से मफ़र भी करना है
ये दुनिया अकबर ज़ुल्मों की हम मजबूरी की अनारकली