इश्क़ मरहून-ए-हिकायात-ओ-गुमाँ भी होगा
वाक़िआ है तो किसी तौर बयाँ भी होगा
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मिरा ही सीना कुशादा है चाहतों के तईं
शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
हमें तो शम्अ के दोनों सिरे जलाने हैं
फ़सील-ए-सब्र में रौज़न बनाना चाहती है
सर-बुलंदी मिरी तंहाई तक आ पहुँची है
मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है
कोई भी शय हो मियाँ जान से प्यारी किसे है
हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक
ये इंतिज़ार नहीं शम्अ है रिफ़ाक़त की
ग़म-ए-जहान ओ ग़म-ए-यार दो किनारे हैं
सुख़न के चाक में पिन्हाँ तुम्हारी चाहत है
ज़मीं के पास किसी दर्द का इलाज नहीं