मिरा ही सीना कुशादा है चाहतों के तईं
तुफ़ंग-ए-दर्द मिरा ही निशाना चाहती है
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फ़सील-ए-सब्र में रौज़न बनाना चाहती है
ये किस को याद किया रूह की ज़रूरत ने
सर-बुलंदी मिरी तंहाई तक आ पहुँची है
ख़ामोशी तक तो एक सदा ले गई मुझे
हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक
मैं अपने आप को भी देखने से क़ासिर हूँ
ज़मीं के पास किसी दर्द का इलाज नहीं
शर्त-ए-दीवार-ओ-दर-ओ-बाम उठा दी है तो क्या
कोई भी शय हो मियाँ जान से प्यारी किसे है
घटाएँ घिरती हैं बिजली कड़क के गिरती है
मिट्टी को चूम लेने की हसरत ही रह गई
मुझ सा बेताब यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा