मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए
इस इक मक़ाम पे कितने सफ़र निकल आए
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हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक
जुनूँ के तौर हम इदराक ही से बाँधते हैं
मिट्टी को चूम लेने की हसरत ही रह गई
ख़ामोशी तक तो एक सदा ले गई मुझे
है टोंक अर्ज़-ए-पाक वहीं से उठेंगे हम
मिरा ही सीना कुशादा है चाहतों के तईं
इश्क़ मरहून-ए-हिकायात-ओ-गुमाँ भी होगा
सुख़न के चाक में पिन्हाँ तुम्हारी चाहत है
ग़ज़ल में जान पड़ी गुफ़्तुगू में फूल खिले
मेरे अशआर तमव्वुज पे जो आए हुए हैं
हवा-ए-हिर्स-ओ-हवस से मफ़र भी करना है