मैं अपने आप को भी देखने से क़ासिर हूँ
ये शाम-ए-हिज्र मुझे क्या दिखाना चाहती है
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दिल को मालूम है क्या बात बतानी है उसे
मेहर ओ महताब को मेरे ही निशाँ जानती है
ग़ज़ल में जान पड़ी गुफ़्तुगू में फूल खिले
मुझ सा बेताब यहाँ कोई नहीं मेरे सिवा
मुझ को तक़दीर ने यूँ बे-सर-ओ-आसार किया
मुद्दतों घाव किए जिस के बदन पर हम ने
ज़मीं के पास किसी दर्द का इलाज नहीं
जुनूँ के तौर हम इदराक ही से बाँधते हैं
ये किस को याद किया रूह की ज़रूरत ने
मिरे ख़ेमे ख़स्ता-हाल में हैं मिरे रस्ते धुँद के जाल में हैं
ये इंतिज़ार नहीं शम्अ है रिफ़ाक़त की
हल्क़ा-ए-दिल से न निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक