मुद्दतों घाव किए जिस के बदन पर हम ने
वक़्त आया तो उसी ख़्वाब को तलवार किया
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हमें तो शम्अ के दोनों सिरे जलाने हैं
घटाएँ घिरती हैं बिजली कड़क के गिरती है
मेरे अशआर तमव्वुज पे जो आए हुए हैं
मिरे ख़ेमे ख़स्ता-हाल में हैं मिरे रस्ते धुँद के जाल में हैं
ख़ामोशी तक तो एक सदा ले गई मुझे
रुकते हुए क़दमों का चलन मेरे लिए है
सुख़न के चाक में पिन्हाँ तुम्हारी चाहत है
मिरा ही सीना कुशादा है चाहतों के तईं
मुझ को तक़दीर ने यूँ बे-सर-ओ-आसार किया
जिंस-ए-मख़लूत हैं और अपने ही आज़ार में हैं
ये किस को याद किया रूह की ज़रूरत ने
मिट्टी को चूम लेने की हसरत ही रह गई