इलाही कश्ती-ए-दिल बह रही है किस समुंदर में
निकल आती हैं मौजें हम जिसे साहिल समझते हैं
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लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में
सज्दे के दाग़ से न हुई आश्ना जबीं
ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-अदम में भी अगर जाऊँगा
तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ूँ के आँसू टपक रहे हैं
रुमूज़-ए-मोहब्बत
जहाँ पे छाया सहाब-ए-मस्ती बरस रही है शराब-ए-मस्ती
ख़ुदा की देन है जिस को नसीब हो जाए
सारी दुनिया से बे-नियाज़ी है
तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए
जिस हुस्न की है चश्म-ए-तमन्ना को जुस्तुजू