कोई क्यूँ किसी का लुभाए दिल कोई क्या किसी से लगाए दिल
वो जो बेचते थे दवा-ए-दिल वो दुकान अपनी बढ़ा गए
Gulzar
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Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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मेरे सुर्ख़ लहू से चमकी कितने हाथों में मेहंदी
लड़ा कर आँख उस से हम ने दुश्मन कर लिया अपना
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या
वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है
करेंगे क़स्द हम जिस दम तुम्हारे घर में आवेंगे
दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ
फ़रहाद ओ क़ैस ओ वामिक़ ओ अज़रा थे चार दोस्त
या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता
बनाया ऐ 'ज़फ़र' ख़ालिक़ ने कब इंसान से बेहतर
जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं