रात की बात का मज़कूर ही क्या
छोड़िए रात गई बात गई
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इक इश्क़ का ग़म आफ़त और उस पे ये दिल आफ़त
क़ुबूल इस बारगह में इल्तिजा कोई नहीं होती
आओ हुस्न-ए-यार की बातें करें
उम्मीद तो बंध जाती तस्कीन तो हो जाती
ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने
इस तरह कर गया दिल को मिरे वीराँ कोई
या-रब ग़म-ए-हिज्राँ में इतना तो किया होता
मोहब्बत किस क़दर यास-आफ़रीं मालूम होती है
दिल बला से निसार हो जाए
उमीद-ए-वस्ल ने धोके दिए हैं इस क़दर 'हसरत'
जब से तेरा करम है बंदा-नवाज़