इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे
है इस में इक तिलिस्म तमन्ना कहें जिसे
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इश्क़ ही इश्क़ हो आशिक़ हो न माशूक़ जहाँ
कोई दिल-लगी दिल लगाना नहीं है
दैर ओ काबा में भटकते फिर रहे हैं रात दिन
लुत्फ़ हो हश्र में कुछ बात बनाए न बने
राहत कहाँ नसीब थी जो अब कहीं नहीं
सब कुछ है और कुछ भी नहीं दहर का वजूद
हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा हमारी नज़र में है
सूरत-ए-हाल अब तो वो नक़्श-ए-ख़याली हो गया
ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं
या इलाही मुझ को ये क्या हो गया
पर्दा-दार हस्ती थी ज़ात के समुंदर में