सब कुछ है और कुछ भी नहीं दहर का वजूद
'कैफ़ी' ये बात वो है मुअम्मा कहें जिसे
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ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं
इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे
ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे
इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया
राहत कहाँ नसीब थी जो अब कहीं नहीं
वफ़ा पर दग़ा सुल्ह में दुश्मनी है
लुत्फ़ हो हश्र में कुछ बात बनाए न बने
हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा हमारी नज़र में है
या इलाही मुझ को ये क्या हो गया