मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
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जरस-ए-गुल की सदा
फ़लस्तीनी शोहदा जो परदेस में काम आए
वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे
दर-ए-उमीद के दरयूज़ा-गर
ज़िंदाँ की एक शाम
दर्द आएगा दबे पाँव
ज़िंदाँ की एक सुब्ह
शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारा-ए-शाम
इश्क़ अपने मुजरिमों को पा-ब-जौलाँ ले चला
आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान
मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
मोरी अर्ज सुनो