वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे
शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने
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पैरिस
इधर न देखो
शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
लेनिन-ग्राड का गोरिस्तान
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
सितम की रस्में बहुत थीं लेकिन न थी तिरी अंजुमन से पहले
जैसे हम-बज़्म हैं फिर यार-ए-तरह-दार से हम
शीशों का मसीहा कोई नहीं
सारी दुनिया से दूर हो जाए
हमारे दम से है कू-ए-जुनूँ में अब भी ख़जिल
हिम्मत-ए-इल्तिजा नहीं बाक़ी
अगस्त1955