पैरिस

दिन ढला कूचा ओ बाज़ार में सफ़-बस्ता हुईं

ज़र्द-रू रौशनियाँ

उन में हर एक के कश्कोल से बरसें रिम-झिम

इस भरे शहर की नासूदगियाँ

दूर पस-मंज़र-ए-अफ़्लाक में धुँदलाने लगे

अज़्मत-ए-रफ़्ता के निशाँ

पेश-ए-मंज़र में

किसी साया-ए-दीवार से लिपटा हुआ साया कोई

दूसरे साए की मौहूम सी उम्मीद लिए

रोज़-मर्रा की तरह

ज़ेर-ए-लब

शरह-ए-बेदर्दी-ए-अय्याम की तम्हीद लिए

और कोई अजनबी

इन रौशनियों सायों से कतराता हुआ

अपने बे-ख़्वाब शबिस्ताँ की तरफ़ जाता हुआ

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