मिरी चश्म-ए-तन-आसाँ को बसीरत मिल गई जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
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फिर हश्र के सामाँ हुए ऐवान-ए-हवस में
फूल मुरझा गए सारे
तमाम शब दिल-ए-वहशी तलाश करता है
फिर लौटा है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब सफ़र से
मिरी जान आज का ग़म न कर कि न जाने कातिब-ए-वक़्त ने
आए कुछ अब्र कुछ शराब आए
दिल से तो हर मोआमला कर के चले थे साफ़ हम
लहू का सुराग़
हम से कहते हैं चमन वाले ग़रीबान-ए-चमन
ये मातम-ए-वक़्त की घड़ी है
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे
सर-ए-वादी-ए-सीना