तमाम शब दिल-ए-वहशी तलाश करता है
हर इक सदा में तिरे हर्फ़-ए-लुत्फ़ का आहंग
हर एक सुब्ह मिलाती है बार बार नज़र
तिरे दहन से हर इक लाला ओ गुलाब का रंग
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बुनियाद कुछ तो हो
जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं
सर-ए-वादी-ए-सीना
सारी दुनिया से दूर हो जाए
जरस-ए-गुल की सदा
सुब्ह फूटी तो आसमाँ पे तिरे
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले न मिले
फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ तो छूटेगी
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
हम मुसाफ़िर यूँही मसरूफ़-ए-सफ़र जाएँगे
ऐ शाम मेहरबाँ हो