मेरी ख़ामोशियों में लर्ज़ां है
मेरे नालों की गुम-शुदा आवाज़
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मैं तेरे सपने देखूँ
हम तो मजबूर थे इस दिल से
इश्क़-आबाद की शाम
एक शहर-आशोब का आग़ाज़
लहू का सुराग़
ज़िंदाँ की एक शाम
नज़्म
जो मेरा तुम्हारा रिश्ता है
फिर आईना-ए-आलम शायद कि निखर जाए
इस वक़्त तो यूँ लगता है
किस शहर न शोहरा हुआ नादानी-ए-दिल का
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के