तिरा दीदार हो आँखें किसी भी सम्त देखें
सो हर चेहरे में अब तेरी शबाहत चाहिए है
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न दौलत की तलब थी और न दौलत चाहिए है
ऐ कातिब-ए-तक़दीर ये तक़दीर में लिख दे
हाल में जीने की तदबीर भी हो सकती है
अब ज़िंदगी रो रो के गुज़ारेंगे नहीं हम
ये फुर्क़तों में लम्हा-ए-विसाल कैसे आ गया
ढूँडेंगे हर इक चीज़ में जीने की उमंगें
मोहब्बत का ये रुख़ देखा नहीं था
था पहला सफ़र उस की रिफ़ाक़त भी नई थी
जो तुझे पैकर-ए-सद-नाज़-ओ-अदा कहते हैं
नए मिज़ाज की तश्कील करना चाहते हैं
है वही एक मेरे सिवा और मैं