शहर में जीना है चलना दो-रुख़ी तलवार पर
आदमी किस से बचे किस की तरफ़-दारी करे
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सामने झील है झील में आसमाँ
बहुत धोका किया ख़ुद को मगर क्या कर लिया मैं ने
होने वाला था इक हादसा रह गया
खिड़कियों पर मल्गजे साए से लहराने लगे
वो अलग चुप है ख़ुद से शर्मा कर
रात काफ़ी लम्बी थी दूर तक था तन्हा मैं
पौ फटी एक ताज़ा कहानी मिली
शहर का मंज़र हमारे घर के पस-ए-मंज़र में है
फूलों को वैसे भी मुरझाना है मुरझाएँगे
छाँव की शक्ल धूप की रंगत बदल गई
धीरे धीरे शाम का आँखों में हर मंज़र बुझा