एक ख़्वाहिश है जो शायद उम्र भर पूरी न हो
एक सपने से हमेशा प्यार करना है मुझे
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इक शम्अ' की सूरत में मंज़ूर किया जाऊँ
जिस क़दर महमेज़ करता हूँ मैं 'साजिद' वक़्त को
मिल नहीं पाती ख़ुद अपने-आप से फ़ुर्सत मुझे
नहीं अब रोक पाएगी फ़सील-ए-शहर पानी को
सिसक रही हैं थकी हवाएँ लिपट के ऊँचे सनोबरों से
इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
लहू की आग अगर जलती रहेगी
हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका
नुमूद पाते हैं मंज़रों की शिकस्त से फ़तह के बहाने
मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है
क़र्या-ए-हैरत में दिल का मुस्तक़र इक ख़्वाब है
अपने अपने लहू की उदासी लिए सारी गलियों से बच्चे पलट आएँगे