इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
जान-ए-मन! मेरे बस में कुछ भी नहीं
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लरज़ जाता है थोड़ी देर को तार-ए-नफ़स मेरा
अपने अपने लहू की उदासी लिए सारी गलियों से बच्चे पलट आएँगे
हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका
मिल गई है बादिया-पैमाई से मंज़िल मिरी
चराग़ की ओट में है मेहराब पर सितारा
रुका हूँ किस के वहम में मिरे गुमान में नहीं
जी में आता है कि दुनिया को बदलना चाहिए
आज खुला दुश्मन के पीछे दुश्मन थे
मैं रिज़्क़-ए-ख़्वाब हो के भी उसी ख़याल में रहा
ये सच है मिल बैठने की हद तक तो काम आई है ख़ुश-गुमानी