आज खुला दुश्मन के पीछे दुश्मन थे
और वो लश्कर इस लश्कर की ओट में था
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मिल गई है बादिया-पैमाई से मंज़िल मिरी
आज आईने में जो कुछ भी नज़र आता है
चराग़ की ओट में है मेहराब पर सितारा
सितारा-ए-ख़्वाब से भी बढ़ कर ये कौन बे-मेहर है कि जिस ने
एक ख़्वाहिश है जो शायद उम्र भर पूरी न हो
हासिल किसी से नक़्द-ए-हिमायत न कर सका
हुआ रौशन दम-ए-ख़ुर्शीद से फिर रंग पानी का
मैं हूँ मगर आज उस गली के सभी दरीचे खुले हुए हैं
चराग़ की ओट में रुका है जो इक हयूला सा यासमीं का
मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है
ये आब-ओ-ताब इसी मरहले पे ख़त्म नहीं
किसी ने फ़क़्र से अपने ख़ज़ाने भर लिए लेकिन